वाह भाई बेला ना वक्त देखा ना कुवेला, विस्तारपूर्वक पढ़िए गुरु के प्यार की कशिश और रूहानियत के जवाब »


मालिक की प्यारी साध-संगत जियो, मालिक से प्यार-मोहब्बत प्रेम लगाना बड़ा आसान है लेकिन आखिर तक औढ़ निभाना बड़ा ही मुश्किल होता है। बहुत सारी मुसीबतें आती हैं, लेकिन सबसे बड़ी तो मुसीबत सभी के अंदर बैठी है, और वो है आपका मन। 

ये मन सिर्फ दो अक्षर का एक नाम है, देखने मे तो इसमे सिर्फ दो ही शब्द हैं 'म' और 'न' जिसका पूरा अर्थ है "मैं नहीं मानूँगा"।

रूहानियत मे मन का मतलब है कि अगर कभी गुरु=पीर=फकीर=अल्लहा=वाहेगुरु=गॉड=रब की कोई भी बात आएगी तो ये मन कहता है कि "मैं नहीं मानूँगा" और अगर कोई काल की बात आती है तो कहता है कि "सिर्फ मैं ही हूँ और कोई नहीं है"।  तो ये मन बड़ी ही जबर्दस्त शक्ति है, आखिर तक औढ़ निभाना अच्छे संस्कारो का, पक्का विश्वास, सेवा और सुमिरन का ही काम है। मन पर काबू पाना बहुत ही मुश्किल है लेकिन जहाँ मालिक का नाम लेकर कोई काम किया जाए वहाँ कुछ असंभव नहीं होता। तो आइये मन से जुड़ी एक बात आपको सुनाते हैं जोकि डेरा सच्चा सौदा, सिरसा में गुरु जी ने सत्संग के दौरान सुनाई थी।

― भाग 1 ● प्रशन दुनियादारी का और जवाब रूहानियत का ―

पूजनीय पिता संत डॉ॰ गुरमीत राम रहीम सिंह जी इंसान फरमाते हैं कि:
एक फकीर था, वो अपना परिवार छोड़कर भक्ति करने लगा। एक बार उनका परिवार उनसे मिलने आया। परिवार में फकीर के बड़े भाई के घर से उसकी बीवी भी आई, यानी उस फकीर की भाभी भी उससे मिलने आई थी। परिवार के सभी सदस्य फकीर से अपनी बाते करने लगे, कि तभी बाते करते-करते भाभी फकीर से कहने लगी कि अरे! इतने लंबे बाल "ये दाढ़ी है या झाड़ी है?" मेरे कहने का मतलब कि क्या तू सच मे भक्ति कर रहा है या झाड़ी और ये सब कुछ वैसे ही बढ़ा रखा है? 

तो वो फकीर कहने लगा कि:
ए बहन! अभी तो मैं तुम्हें नहीं बता सकता कि ये 'दाढ़ी है या झाड़ी' लेकिन बताऊंगा ज़रूर, एक दिन तुझे बुलाऊंगा और फिर बताऊंगा कि "ये दाढ़ी है या झाड़ी है!" 

तो जैसे-जैसे समय गुज़रता गया, और फकीर को पता चला कि अब उसने जाना है; यानी कि अब उसके मरने का वक्त आ गया है। तो उसने अपनी चिता खुद बनाई और घर पर संदेश भेजा कि आप एक बार सभी परिवार सदस्य आ जाएँ और खासकर मेरी वो बहन, वो भाभी भी ज़रूर आ जाएं। तो परिवार वाले आ गए और फकीर खुद चिता पर बैठ गया और कहने लगा कि 
"हे बहन तूने उस दिन कहा था कि ये दाढ़ी है या झाड़ी, उस समय मुझे अपने मन का भरोसा नहीं था कि क्या पता ये झाड़ी ही ना बना दे, लेकिन हाँ - आज मुझे इस बात का पता है कि मैंने कुछ देर के बाद इस संसार से चले जाना है और मैं ये सच्ची दाढ़ी लेकर जा रहा हूँ, राम का नाम लेकर जा रहा हूँ और उस सच्चे मालिक से औढ़ निभा कर जा रहा हूँ।"

तो आपने देखा कि ऐसा है मन जालिम। चलते-चलते कब टायर पंचर कर दे अर्थात व्यक्ति में कब-कौन से विचार भर दे इसका कोई पता नहीं है। पल मे ये घात कर सकता है और पल मे ये इंसान को सेकंड के सौवें हिस्से मे आसमान मे ले जाता है और अगले हिस्से मे पाताल मे ले जाता है। ये चढ़ाता है तो बड़ी गुड्डियाँ चढ़ाता है और अगर गिराता है तो बड़े औंधे मुंह गिराता है। 

ये मन आदमी को किसी बात की समझ नहीं आने देता, हर वक्त व्यक्ति को व्याकुल और परेशान करे रखता है। बिना वजह उसे टेंशन, चिंता और परेशानियों मे उलझाए रखता है।  इसलिए अपने चिंताएँ सतगुरु-मौला पर छोड़ दो, अपने सतगुरु-वाहेगुरु पर छोड़ दो, वो सब जानता है, अरे जब माँ अपने बच्चे के रोने पर दौड़ी चली आती है तो अगर कोई व्यक्ति अल्लहा=राम के लिए रोएगा, जिसने उस माँ को बनाया है, तो क्या वो दौड़ा चला नहीं आएगा? लेकिन कोई उसके लिए रोए तो सही, कोई उसकी याद मे तड़पे तो सही। 

इंसान के अपने ही बनाए दायरे हैं, इंसान की अपनी बनाई सोच है और उसी में उलझा पड़ा है आज का इंसान। उसे गुरुओं के वचनो का, या संत वचनो का असर कम ही होता है। पढ़कर कढ़ जाते हैं लोग, उनको लगता है कि उन्हें सब कुछ आता है, हम तो सब कुछ जानते हैं जबकि असलियत मे वो लोग कुछ नहीं जानते होते। 

― भाग 2 ● कशिश गुरु के प्यार की ―

पूज्य गुरु संत डॉ॰ गुरमीत राम रहीम सिंह जी इंसान फरमाते हैं कि आज आपको गुरु साहिबानो के समय की एक बात सुनाते हैं, ये बात श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज जी के समय की है जब हर तरफ युद्ध चल रहे होते थे और हर समय युद्ध का माहौल बना रहता था। तो उस समय लोग अपनी मर्जी से आते और गुरु जी के साथ युद्ध के लिए भर्ती हो जाते। तभी वहाँ एक जमींदार भाई आया और कहने लगा कि "गुरु जी मुझे भी भर्ती कर लो जी"। तो जो ज़िम्मेवार लोग जो सामने बैठे थे उन्होने उससे पूछा कि क्या तुझे तलवार चलानी आती है? 

जमींदार बोला: नहीं आती।

जिम्मेवारों ने पूछा: क्या धनुष चलना आता है?

जमींदार बोला: ना जी, नहीं आता।

जिम्मेवारों ने फिर पूछा कि: क्या कोई अस्त्र-शस्त्र चलाना आता है?

जमींदार बोला: नहीं जी, कोई अस्त्र-शस्त्र भी चलाना नहीं आता जी। 

ज़िम्मेवार व्यक्तियों ने कहा कि फिर तू क्या करेगा, यहाँ तो उसी व्यक्ति की जरूरत है जो युद्ध भूमि मे अस्त्र-शस्त्र चला सके। तो गुरु गोबिंद सिंह जी वहाँ बैठे थे, वो भी कहने लगे कि हाँ भाई उसी की जरूरत है जिसे ये सारा काम करना आता हो। 

तो जमींदार भाई बोला कि: मैं गुरु जी के घोड़ों की सेवा ही कर लिया करूंगा जी, मुझे और तो कुछ आता नहीं जी। उसकी ये बात सुनकर गुरु जी बड़े खुश हुए और कहने लगे कि चलो भाई! इसने कोई नई सेवा तो निकाली। 

अपनी बात कहने के बाद वो जमींदार भाई रोजाना सेवा करने आने लगा और हर रोज़ अपने गुरु में ध्यान रखते हुए, प्रभु के गुण गया करे, कभी घोड़ो की मालिश किया करे तो कभी उन्हें पानी पिलाए, कहने का मतलब वह घोड़ो की खूब अच्छे से सेवा किया करता था। क्योंकि उन दिनों युद्ध के समय में दूसरे लोगों के पास घोड़ों की संभाल करने की फुर्सत नहीं हुआ करती थी, तो वो जमींदार भाई दिन-प्रतिदिन घोड़ों को अच्छा चारा देता था और अच्छी सेवा करता जिसके कारण उन घोड़ो के रंग ही बदलने लगे, कहने का मतलब उन घोड़ों की सेहत मे पहले से कई गुणा ज़्यादा सुधार होने लगा। क्योंकि वो जमींदार हर काम मालिक का नाम जपते हुए और रूहानियत की मस्ती मे किया करता था इसलिए उन घोड़ों की संभाल बहुत अच्छे से होने लगी। 

एक दिन जब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी घुड़साल [घोड़ों को खड़ा करने कि जगह] में आए तो अंदर देखते ही हैरान हो गए और कहने लगे कि "वाह भाई वाह! कौन है भाई जो इन घोड़ों की संभाल करता है?" तो यह सुनकर वहाँ उपस्थित ज़िम्मेवार व्यक्तियों ने उस सीधे-साधे जमींदार की तरफ इशारा करते हुए कहा कि ये है जी वो। ऐसा सुनकर वो जमींदार भाई, गुरुजी के सामने पेश हो गया। फिर गुरुजी ने उससे पूछा कि क्या नाम है भाई तेरा? वो कहने लगा कि मेरा नाम है जी "बेला"। 

गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज कहने लगे कि: "वाह भाई बेलेया, कमाल ही करती तूँ तां" और पूछने लगे कि "तूँ कुछ पढ़ाई-लिखाई किती है?"

जमींदार-बेला बोला: ना जी, कुछ भी नहीं आता जी मुझे।

श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने वचन किये:
चलो फिर – अब तुम्हें हम खुद पढ़ाएंगे। बस तुम मजलिस पर आ जाए करना, सुबह-सुबह सत्संग मे जब तुम आया करोगे तो हम तुम्हें एक लाइन याद करने के लिए दिया करेंगे और तुम शाम को हमें सुना दिया करना।

गुरु जी के ऐसे अनमोल वचनो को सुनकर बेला-जमींदार की रूह बाग-बाग हो गयी और उसकी खुशी का कोई ठिकाना ना रहा। वह खुशी से झूम उठा और नाचने-कूदने व गाने लगा, क्योंकि जब एक मुरशिद खुद अपने मुरीद को पढ़ाए और सिखाए, तो इससे बड़ी कोई दूसरी बात खुशी की मुरीद के लिए तो हो ही नहीं सकती। बेला-जमींदार कहने लगा ठीक है जी, मैं आ जाए करूंगा और कहने लगा "अच्छा हुआ जी कि मैंने दुनियावी पढ़ाई-लिखाई नहीं की।"

इसके बाद बेला-जमींदार रोजाना सुबह सत्संग पर आने लगा, गुरु जी उसे जो भी बताते, बेला-जमींदार उसे सुनता, याद करता और सारा दिन दोहराता रहता और जैसे ही शाम को गुरु जी आते तो वह गुरु जी को गुरुबानी [संतवचन] की वो लाइने सुना देता जो गुरु जी ने उसे सुबह सत्संग मे बताई होती थी। तो इस तरह रोजाना धीरे-धीरे बेलाजी की यादाश्त बनने लगी। क्योंकि बेला-जमींदार को गुरु जी ने वचन किए थे कि उसने रोज़ सुबह सत्संग मे आना है, तो जब बेलाजी एक दिन सुबह-सुबह सत्संग मे गुरु जी के पास पहुंचे तो देखते हैं कि गुरु जी तो बहुत जल्दी मे कहीं जा रहे हैं। 

बेलाजी श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। तो गुरु जी ने जब बेलाजी की तरफ देखा तो उन्हें याद आया और वे कहने लगे कि "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला" , अरे भाई! अभी तो हम कहीं जा रहे हैं और तुम फिर आकर सामने खड़े हो गए। लेकिन बेला-जमींदार भी क्या करता बिचारा, उसे तो खुद गुरु जी ने वचन किए थे, इसलिए उसे तो गुरुजी के पास पढ़ने आना ही आना था।

गुरु जी की यह बात "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला" सुनकर बेला-जमींदार कहने लगा की ठीक है जी, सत्यवचन-संतवचन जी। तो अगले ही पल से बेलाजी ने गुरुजी द्वारा बोले गए वचनो का जाप करना शुरू कर दिया। सारे दिन में वह जो भी काम करते, साथ-साथ में बोलते रहते "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला",  "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला", "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला"।

अब वहाँ जो ज़्यादा ज्ञानी लोग बैठे थे, वो बेलाजी को देखकर ताड़ी मार-मारकर ज़ोरो से हंसने लगे, कई लोगों के तो हंस-हँसकर पेट मे दर्द होने लगा और कहने लगे कि आज मजा आएगा शाम को, जब ये बेला गुरुजी के सामने बोलेगा "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला", "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला"। 

उन ज्ञानी लोगों को बेलाजी पागल लगते थे लेकिन उन्हें क्या पता था कि बेलाजी तो गुरु के प्रेम की मस्ती मे पागल हुए बैठे थे।

तो जैसे ही शाम को गुरु जी लौटकर वापिस आए, तो वो ज्ञानी लोग कहने लगे कि गुरु जी आज सुनो आप बेला जी से कि इन्होने क्या याद किया है। तो गुरु जी सोचने लगे कि "क्या आज भी हमने बेलाजी से कुछ याद करने के लिए दिया है" 

गुरु जी ने बेलाजी को बुलवाया और पूछा कि: हाँ भाई बेला आज क्या सुनाएगा? क्या याद करके आए हो?

बेलजी कहने लगे: आपके पाक-पवित्र वचन जी।

गुरु जी ने कहा: सुनाओ भाई...क्या याद किया है।

बेला जी बोलने लगे: "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला", "वाह भाई बेला, ना वक्त देखे ना कुवेला" .....

गुरु जी पूछा: अरे ये क्या है?

बेलाजी बोले: मेरे गुरु के पाक-पवित्र वचन जी।

गुरु जी ने खुश होकर बेलाजी को वचन किए: जा बेला, तेरी दोनो जहानों में हाजरी मंजूर करते हैं, और तेरा दसवां द्वार भी खुल जाए और मालिक तुझे खूब खुशियाँ बख्शें।

अब जब इतने बड़े वचन गुरु जी ने बेलजी जैसे अनपढ़ और सीधे-साधे जमींदार को कर दिये, तो वहाँ जो ज्ञानवान लोग 15-15 सालों से बैठे थे, उनको तो टटियाँ लग गयी, कहने का मतलब उन्हे बेलाजी से ईर्ष्या होने लगी। उन्हें लगने लगा कि बेला को आए थोड़े दिन नहीं हुए और आकर इसने अपना अलग ही काम शुरू कर लिया। इस बेला-जमींदार को कुछ आता-जाता तो है नहीं, अनपढ़ आदमी है और गुरु जी ने उसको इतना कुछ कैसे बख्श दिया? ये बात उन पढ़े-लिखे लोगो से हजम नहीं हो रही थी।

श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज एक पीर=फकीर होने के नाते वह समझ जाते थे कि उनके ज्ञानवान मुरीद कहाँ मरोड़ा खा गए होंगे, अर्थात गुरु जी समझ गए थे कि कुछ लोगों को बेलाजी से ईर्ष्या होनी शुरू हो गयी है, तो गुरु जी ने उन्हें समझाने के लिए एक काम सौंपा।

गुरु जी ने सभी लोगो को आदेश दिए कि "भांग घोटो भाई भांग, और खासकर ये जो ज्ञानी लोग हैं ये सारी रात भांग बनाते रहना"

तो इस तरह करते सारी रात भांग बनती रही और अगला दिन भी सारा भांग घोटने मे लग गया और शाम को जब गुरु जी आए तो उन्होने पूछा कि "क्या भांग बन गयी?"

ज्ञानी लोग बोले: हाँ जी, बन गयी जी।

गुरु जी ने आदेश दिए: इधर लाओ भाई भांग, और इस सारी भांग को सुराई में भर दो। और ये सभी ज्ञानी लोग अपनी-अपनी अंजुली में भांग लें और फिर इसे जमीन पर नीचे डोल दें।

तो अब जितनी भी कढ़ाई में भांग तैयार की थी वो सारी धीरे-धीरे करके जमीन पर डुलती चली गई और इस तरह करते-करते सारी भांग खत्म होने लगी, कि तभी गुरु जी बोले:  क्यों......आया भाई नशा?

वहाँ बैठे सारे ज्ञानी लोग हँसने लगे और कहने लगे कि गुरु जी सारी रात भांग रगड़ते रहे, सारा दिन रगड़ते रहे और शरीर के अंदर भांग की एक घूंठ तक नहीं गयी, सारी भांग आपने नीचे गिरवा दी और अब हमसे पूछते हो नशा चढ़ा है या नहीं। उनकी ये बातें सुनकर श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज ने कहा कि: 

"वचन तो हम रोज़ ही किया करते हैं, आपको लाखों वचन कर दिए, अंदर तो आपके गया ही नहीं एक वचन भी, और जिसके अंदर गया तो फल तो उसी को मिलेगा ना। जैसे कि अब आप ज्ञानी लोग भांग ले रहे हो और उसे जमीन पर डोल रहे हो, ठीक उसी तरह आप लोग हमारे वचनो को भी लेते हो और बाद में फैंक देते हो। अमल तो करते ही नहीं भाई। आप लोग सोचते हो कि गुरु जी तो यूं ही रोज़ सत्संग और वचन करते रहते हैं इनका क्या है, ये तो वैसे ही बोलते रहते हैं। तो जो भी ऐसा सोचते हैं कि पीर=फकीर ऐसे ही बोलते रहते हैं, तो वो लोग ऐसे ही सारा जीवन सोचते ही रहते हैं, लेकिन खुशियाँ वही हांसिल करते हैं जो वचनो को सुनकर अमल कमाते हैं।"

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पूज्य पिता संत डॉ॰ गुरमीत राम रहीम सिंह जी इंसान फरमाते हैं कि गुरु के वचनो को सिर्फ सुन लेने से कुछ नहीं होता, आपको असली  खुशियाँ तब मिलेंगी जब आप वचनो पर अमल करते हैं। जो वचनो पर अमल कर लेता है वो खुशियों से अंदर-बाहर लबालब खजाने भरता चला जाता है। तो इसलिए भाई अमल करने से ही बेड़ा पार होता है तो इसलिए अमल करना चाहिए और वचनो पर चलना चाहिए।  हम तो खाकसार हैं, चौकीदार हैं और आपके जूतों में भी बैठने को तैयार हैं,  पर वो अल्लाह=वाहेगुरु=राम दोनों जहान का दाता है, वो ना अंदर कमी छोड़ता है और ना बाहर कमी छोड़ता।

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